Natasha

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राजा की रानी

राजलक्ष्मी ने मेरे पैरों पर हाथ रखकर कहा, “अब कभी न होगा, सिर्फ अबकी बार खुशी मन से मुझे हुक्म दे दो।”


मैंने कहा, “अच्छा। लेकिन तड़के ही शायद तुम्हें जाना पड़ेगा। अब और रात मत बढ़ाओ, सोने जाओ।”

राजलक्ष्मी नहीं गयी, धीरे-धीरे मेरे पैरों पर हाथ फेरने लगी। जब तक सो न गया, घूम-फिरकर बार-बार सिर्फ यही मालूम होने लगा कि वह स्नेह-स्पर्श अब नहीं रहा। वह भी तो कोई ज्यादा दिन की बात नहीं है, आरा स्टेशन से जिस दिन वह उठाकर अपने घर लाई थी तब इसी तरह पाँवों पर हाथ फेरकर मुझे सुलाना पसन्द करती थी। ठीक इसी तरह नीरव रहती थी, पर मुझे मालूम होता था कि उसकी दसों उँगलियाँ मानो दसों इन्द्रियों की सम्पूर्ण व्याकुलता से नारी-हृदय का जो कुछ है सबका सब मेरे इन पैरों पर ही उंड़ेले दे रही है। हालाँकि मैंने चाहा नहीं था, माँगा नहीं था, और इसे लेकर कैसे क्या करूँगा, सो भी सोचकर तय नहीं कर पाया था। बाढ़ के पानी के समान आते समय भी उसने राय नहीं ली, और शायद जाते सयम भी, उसी तरह मुँह न ताकेगी। मेरी ऑंखों से सहज में ऑंसू नहीं गिरते, और प्रेम के लिए भिखमंगापन भी मुझसे करते नहीं बनता। संसार में मेरा कुछ भी नहीं है, किसी से कुछ पाया भी नहीं है, 'दे दो' कहकर हाथ फैलाते हुए भी मुझे शरम आती है। किताबों में पढ़ा है, इसी बात पर कितना विरोध, कितनी जलन, कितनी कसक और मान-अभिमान-न जाने कितना प्रमत्त पश्चात्ताप हुआ करता है- स्नेह की सुधा गरल हो उठने की न जाने कितनी विक्षुब्ध कहानियाँ हैं। जानता हूँ कि ये सब बातें झूठी नहीं हैं, परन्तु मेरे मन का जो वैरागी तन्द्रराच्छन्न पड़ा था, सहसा वह चौंककर उठ खड़ा हुआ, बोला, “छि छि छि!”

बहुत देर बाद मुझे सो गया समझकर, राजलक्ष्मी जब सावधानी के साथ धीरे से उठकर चली गयी तब वह जान भी न पाई कि मेरे निद्राहीन निमीलित नेत्रों से ऑंसू झर रहे हैं। ऑंसू बराबर गिरते ही रहे, किन्तु आज की वह आयत्तातीत सम्पदा एक दिन मेरी ही थी, इस व्यर्थ के हाहाकार से अशान्ति पैदा करने की मेरी प्रवृत्ति न हुई।
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सबेरे उठकर सुना कि बहुत तड़के ही राजलक्ष्मी नहा-धोकर रतन को साथ लेकर चली गयी है। और यह भी खबर मिली कि तीन दिन तक उसका घर आना न होगा। हुआ भी यही। वहाँ कोई विराट काण्ड हो रहा हो सो बात नहीं- पर हाँ, दस-पाँच ब्राह्मण सज्जनों का आवागमन हो रहा है, और कुछ-कुछ खाने-पीने का भी आयोजन हुआ है, इस बात का आभास मुझे यहीं बैठे-बैठे अपने जँगले में से मिल रहा था। कौन-सा व्रत है, उसका कैसा अनुष्ठान है, उसके सम्पन्न करने से स्वर्ग का मार्ग कितना सुगम होता है, यह मैं कुछ भी न जानता था, और जानने के लिए ऐसा कुछ कुतहूल भी न था। रतन रोज शाम के बाद आया करता और

कहता, “आप एक बार भी गये नहीं बाबूजी?”

मैं पूछता, “इसकी क्या कोई जरूरत है?”

रतन कुछ मुसीबत में पड़ जाता। वह इस ढंग से जवाब देता- मेरा बिल्कु्ल न जाना लोगों की निगाह में कैसा लगता होगा! हो सकता है कि कोई समझ बैठे कि इसमें मेरी इच्छा नहीं है। कहा तो नहीं जा सकता?

नहीं, कहा कुछ भी नहीं जा सकता। मैं पूछता, “तुम्हारी मालकिन क्या कहती हैं?”

रतन कहता, “उनकी इच्छा तो आप जानते ही हैं, आप नहीं रहते हैं तो उन्हें कुछ भी अच्छा नहीं लगता है। लेकिन क्या करें, कोई पूछता है तो कह देती हैं, कमजोर शरीर है, इतनी दूर पैदल आने-जाने से तबीयत खराब होने का डर है। और आ के करेंगे ही क्या!”

मैंने कहा, “सो तो ठीक बात है। इसके अलावा तुम तो जानते हो रतन, कि इन सब पूजा-पाठ, व्रत-उपवास, धर्म-कर्मों के बीच मैं बिल्कुआल ही अशोभन-सा दिखाई देता हूँ। योग-यज्ञ के मामलों में मेरा जरा दूर-दूर ही रहना अच्छा है। ठीक है न?”

रतन हाँ में हाँ मिलाता हुआ कहता, “सो तो ठीक है!” मगर मैं राजलक्ष्मी की तरफ से समझता था कि मेरी उपस्थिति वहाँ... किन्तु जाने दो उस बात को।

सहसा एक जबरदस्त खबर सुनने में आयी। मालकिन को आराम और सहूलियत पहुँचाने के बहाने गुमाश्ता काशीनाथ कुशारी महाशय सस्त्रीक वहाँ उपस्थित हुए हैं।

“कहता क्या है रतन, एकदम सस्त्रीक?”

“जी हाँ। सो भी बिना निमन्त्रण के।”

समझ गया कि भीतर-ही-भीतर राजलक्ष्मी का कोई कौशल चल रहा है। सहसा ऐसा भी मालूम हुआ कि शायद इसीलिए उसने अपने घर न करके दूसरों के घर यह इन्तजाम किया है।

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